से रोज़-रोज़ कहीं सीधे घर आया जा सकता है ? कभी नहीं। कभी रास्ते में ये मिल जाते हैं, कभी वे। क्लब, गोष्ठी,समाज और रेस्तरां की तो बात छोडिए, कभी-कभी तो सीधे घर जाने की बजाय कबड्डी या गिल्ली-डंडा खेलने को ही मन करता है। लेकिन एक हमारी ये हैं कि हमें महीने में दो-चार दिन भी ऐसी छूट देने को तैयार नहीं। परिणामस्वरूप हमें आखिर अपने सदा-सहायक झूठ का ही सहारा लेना पड़ता है। कभी कहते हैं कि दफ्तर में काम अधिक था,कभी कहते हैं कि रास्ते में साइकिल पंचार होगई और कभी कहना पड़ता है कि हे जग्गो की जीजी, आज तो बस तुम्हारे पुण्य प्रताप से ज़िंदा बचा हूं, वरना वह 'एक्सीडेंट' होता कि इस वक्त तो हमारे कारनामे धर्मराज की अदालत में खुल रहे होते।
ऐसी बात नहीं कि स्वयं उनमें इन बातों को सोचने-समझने की अक्ल न हो। घर-बाहर, पास-पड़ोस का जो उनको मिलता है,उनकी सूक्ष्म बुद्धि की तारीफ़ करता नहीं अघाता। हमें भी उनके पीठ-पीछे यह मान लेने में कोई एतराज़ नहीं कि जहां तक तुलना का प्रश्न है, यह जो बुद्धि नाम की वस्तु है, दरअसल, उनके हिस्से में ईश्वर के पक्षपात से, हमसे अधिक ही आई है। लेकिन, इनका मतलब यह तो नहीं कि हम निरे बुद्धू हैं। पर क्या कहें- 'वे' मुंह से तो कभी इस मनहूस शब्द का प्रयोग नहीं करतीं-लेकिन अपने आचरण और इशारों से मुझे इस बात का आभास कराती ही रहती हैं कि इससे कुछ अधिक या पृथक भी नहीं हूं।
आप ही सोचिए, मैं पढ़ा-लिखा, अच्छा-खासा, लंबा,तंदुरुस्त आदमी कहीं बेवकूफ हो सकता हूं ? लेकिन उनसे कोई इस बात को कहके तो देखे, 'वे' मुझे अक्लमंद मानने को कतई तैयार नहीं। उनका पक्का विचार है कि मैं सचमुच ऐसा भोंदू हूं कि कुंजडिनें मुझे आसानी से ठग सकती हैं। दर्जी मेरा कपड़ा मजे़ में खा सकता है, हर दुकानदार मुझे आराम से लूट सकता है। सफर में मेरी जेब काटी जा सकती है और जाने मेरा क्या-क्या नहीं हो सकता ! उनके विचार से घर से बाहर, अकेले में कहीं भी निरापद नहीं हूं। न जाने कब मुझे और कुछ नहीं तो किसी की नज़र ही लग जाए ? न जाने कब मुझे, कहीं कोई बहका ही ले ? पता नहीं कब मुझे बुखार ही आ जाए, तो ? और जी, आजकल किसी का ठिकाना है-कोई कहीं मुझ पर जादू-टोना कर बैठे तो 'वे' बस बैठी रह जाएंगी कि नहीं ? इसलिए वह सदा छाया की तरह मेरे साथ लगी रहती हैं। मैं गृहस्थी की गाड़ी का ड्राइवर भले होऊं, मगर यह गाड़ी बिना उनकी 'व्हि्सिल' हरगिज़ नहीं रेंग सकती।
खुद मैं अपने-आपको कोई कम होशियार और किसी से कम फितना नहीं समझता, लेकिन-'वे' मुझे सिर्फ भोला और भुलक्कड़ ही कहकर कृतार्थ करती हैं। कभी-कभी तो मैं उनसे मज़ाक में कह भी देता हूं-सुनो, तुम तो नाहक ही मुझसे शादी करके पछताईं। इस पर जब 'वे' आंखें तरेरने लगती हैं तो उनसे पूछता हूं-अच्छा बताओ, मुझमें और तुम्हारे बड़े लड़के में, तुम्हारी समझ में क्या मौलिक अंतर है ? लेकिन मुश्किल यह है कि इन बुद्धिमानी के प्रश्नों से मेरी अक्लमंदी उनकी निगाह में कभी भी सही नहीं उतरती।
कभी-कभी जब सिरफिरे अख़बारों में नारियों की आज़ादी के समर्थन का आंदोलन देखता हूं तो मुझे बड़ा क्षोभ होता है। इन अक्ल के मारे संपादकों, पत्रकारों और लेखकों तथा बयानबाज नेताजी से कोई पूछे कि आज परतंत्र नारी है या नर ? कौन कहता है कि आज नारी गुलाम है ? गुलाम तो बेचारा आदमी है। दूर क्यों जाते हो, खुद मुझे ही देख लो न ? मुझ जैसी सुशिक्षित, समझदार, भले घर की, सबका मान-सम्मान करने वाली सदगृहस्थ पत्नी हर एक को मुश्किल से ही नसीब होगी। लेकिन मैं ही जानता हूं कि अपने घर
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