मेरी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' नहीं है। न असत्य को गल्प रूप देने वाली कोई सत्यकथा। 'विश्व-इतिहास की झलक' भला मैं कैसे लिख सकता हूं ? 'मेरी कहानी' नेहरूजी की जुबानी भी नहीं है। न यह राम-कहानी है, न कृष्ण-कथा। आधुनिक साहित्य के नाम पर रोमांटिक काम-कथा भी नहीं है। यह तो एक कामगार की कहानी है। एक मसिजीवी लेखक के जीवन का लेखाजोखा है।
यह कहानी उस व्यक्ति की है जिसने बीस वर्ष की अवस्था तक बनियान का मुंह नहीं देखा था। जब उसके पिता ने गौना करके अलग किया तो उसके पास केवल एक रुपये की पूंजी थी। जो एक रुपये माहवार के टूटी छत वाले कमरे में जाकर बसा था। यहीं उसकी मधुयामिनियां मनीं।

यह उस व्यक्ति की कहानी है जिसने चवन्नी से अपना रोज़गार शुरू किया था। संयोग देखिए कि जब दिल्ली को चला तो टिकट के पैसे चुकाने के बाद एक चवन्नी ही बची थी। उस व्यक्ति जैसे न जाने कितने लोग होंगे जो एक रुपए पर प्रतिदिन चार आने का ब्याज देते थे। मैं तो एक मुनीमजी से पर्चा लिखकर दस रुपये लेता और महीने-भर बाद पंद्रह लौटाता। लेना आसान था, पर देना बड़ा कठिन था। इस देनदारी में पत्नी के टूम-छल्ले तक चुक गए। खाना एक बार बनता था। बचा तो शाम को खा लिया, नहीं तो -हरिओम तत्सत् ! मैं तो एक जोड़ा धोती-कुर्ते से काम चला लेता था, परंतु अठहत्थी धोती में पत्नी के लिए अपने अंगों को छिपाना मुश्किल हो जाता। पीहर से प्राप्त बिछुओं की डंडियां टूट-टूट जातीं और उन्हें वे डोरों से बांध-बांधकर पहना करती थीं। पहली नौकरी आठ रुपये महीने की मिली।
सट्टे-पानी के लिए बीस की आवश्यकता थी, तो चार-आठ आने पानी के और अंकों के सट्टों पर लगाता। कभी बढ़कर मिल जाते, कभी डूब जाते।